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दिल्ली चुनाव 2025: मुस्लिम वोट, बीजेपी की बढ़त और राजनीतिक पहचान का संकट

मुस्लिम वोट और राजनीतिक पहचान का संकट

दिल्ली के हालिया चुनावों ने राजधानी की राजनीतिक दिशा, अल्पसंख्यक वोटों की भूमिका और सत्ता संतुलन को लेकर तीखी बहस छेड़ दी है। दिल्ली के मुस्लिम मतदाताओं के लिए यह नतीजे एक विरोधाभास प्रस्तुत करते हैं: जहां समुदाय ने “बीजेपी हराओ” के नारे के तहत आम आदमी पार्टी (AAP) का समर्थन किया, वहीं भारतीय जनता पार्टी (BJP) ने एक और प्रचंड भगवा लहर के साथ अभूतपूर्व सफलता हासिल की। यह स्थिति एक महत्वपूर्ण सवाल खड़ा करती है:
क्या मुस्लिम वोट अब केवल दूसरों की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने का साधन बन गया है, न कि स्वयं की सशक्तिकरण की ताकत?

कांग्रेस की ऐतिहासिक विफलता: बीजेपी के उत्थान की जिम्मेदार?

कभी भारतीय राजनीति की धुरी रही कांग्रेस आज बीजेपी के उदय के लिए जिम्मेदार मानी जा रही है। आलोचकों का कहना है कि अपने सत्ता काल में कांग्रेस ने आरएसएस और बीजेपी की विचारधारा के प्रभाव को रोकने में विफलता दिखाई। सत्ता से बाहर होने के बाद भी, उसने हिंदुत्व की राजनीति के खिलाफ ठोस रणनीति बनाने में कोई रुचि नहीं दिखाई। इस चुनाव में उसकी अप्रासंगिकता स्पष्ट रूप से दिखी—वह दिल्ली में बीजेपी विरोधी भावनाओं का लाभ उठाने में असफल रही और केवल एक फुटनोट बनकर रह गई।

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दिल्ली में बीजेपी की जीत: हिंदुत्व को जनादेश?

2025 के दिल्ली चुनावों ने बीजेपी की पकड़ को और मजबूत कर दिया है। मुख्य बिंदु:

  • AAP का पतन: अरविंद केजरीवाल, जो कभी दिल्ली के भ्रष्टाचार-विरोधी योद्धा थे, अपने ही निर्वाचन क्षेत्र में पिछड़ गए। मनीष सिसोदिया और आतिशी जैसे वरिष्ठ नेता करारी हार का सामना कर चुके हैं, जो AAP की घटती लोकप्रियता का संकेत है।
  • शहरी हिंदू एकजुटता: बीजेपी की सफलता यह दर्शाती है कि हिंदू वोटों का बड़े स्तर पर एकीकरण हुआ है। जो मतदाता लोकसभा चुनावों में मोदी को समर्थन देते थे, वे अब राज्य चुनावों में भी बीजेपी के साथ खड़े हैं।
  • मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्रों में AAP की पकड़: AAP ने कुछ मुस्लिम बहुल सीटें बचा लीं, जैसे कि मटिया महल (अली मोहम्मद इकबाल), बल्लीमारान (इमरान हुसैन) और सीलमपुर (चौधरी जुबैर), लेकिन ये जीत व्यापक भगवा लहर के सामने केवल अपवाद थीं।

मुस्लिम मतदाता: निष्ठा लेकिन कोई प्रभाव नहीं?

दिल्ली के मुस्लिम वोटिंग पैटर्न ने एक गंभीर विरोधाभास को उजागर किया:

  • AAP को एकतरफा समर्थन: मुस्लिम बहुल सीटों पर मतदाताओं ने AAP के पक्ष में बड़े पैमाने पर मतदान किया। अमानतुल्लाह खान (ओखला) और शोएब इकबाल (मटिया महल) जैसी सीटों पर समुदाय ने भाजपा को रोकने के लिए रणनीतिक मतदान किया।
  • AIMIM की सीमित भूमिका: असदुद्दीन ओवैसी की AIMIM खुद को मुस्लिमों की राजनीतिक आवाज़ के रूप में पेश करने की कोशिश कर रही थी, लेकिन उसके उम्मीदवार को मुसलमान वोटर का साथ नहीं मिल पाया जितनी उम्मीद थी । इससे यह साबित होता है कि मुस्लिम मतदाता अभी भी भाजपा-विरोधी वोट को विभाजित करने से बचते हैं।
  • व्यावहारिकता की कीमत: मुस्लिम मतदाताओं ने AAP का समर्थन कर कुछ सीटें बचा तो लीं, लेकिन इससे बीजेपी के व्यापक प्रभाव को कोई झटका नहीं लगा। आलोचक कहते हैं कि यह वोटिंग पैटर्न समुदाय को कोई वास्तविक राजनीतिक ताकत नहीं दिला सका।

“बीजेपी हराओ” जाल: समुदाय की राजनीतिक दुविधा

इस चुनाव ने मुसलमानों के लिए एक कड़वी सच्चाई उजागर की: उनकी निष्ठा धर्मनिरपेक्ष पार्टियों के लिए सुनिश्चित होती है, लेकिन उनके न्याय, सुरक्षा और प्रतिनिधित्व की मांगों को कोई महत्व नहीं दिया जाता।

  • मुस्लिम मुद्दों पर चुप्पी: AAP, कांग्रेस की तरह, मुस्लिमों के खास मुद्दों पर चुप रही—भीड़ हिंसा, नागरिकता कानून या संस्थागत भेदभाव के सवाल पर कोई ठोस बयान नहीं दिया गया।
  • बलिदान का कोई इनाम नहीं: मुस्लिम मतदाता धर्मनिरपेक्षता के लिए लड़ते हैं, लेकिन जब मुश्किलें आती हैं, तो केवल वही निशाने पर होते हैं। एक मतदाता ने कहा, “हम सेक्युलरिज़्म के लिए लड़ते हैं, लेकिन जब संकट आता है, तो केवल हमारे घर जलाए जाते हैं।”
  • डर आधारित वोटिंग का अंत: “बीजेपी हराओ” का नारा अब अल्पसंख्यकों की राजनीतिक एजेंसी को निष्क्रिय करने वाला हथियार बन गया है, जिससे दीर्घकालिक सशक्तिकरण की बजाय तात्कालिक चुनावी रणनीति पर ध्यान केंद्रित होता है।

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आत्मालोचना: समुदाय की अपनी कमजोरियाँ?

मुस्लिम समाज के भीतर भी आत्मालोचना की आवाज़ें उठ रही हैं:

  • गद्दारों की भूमिका: आलोचकों का कहना है कि समुदाय के अंदर ही कुछ लोग “छिपे हुए गद्दार” हैं, जो मुस्लिम एकता को तोड़ते हैं और बड़ी पार्टियों से सांठगांठ करके समुदाय के हितों को नुकसान पहुंचाते हैं।
  • AIMIM की सीमित अपील: ओवैसी की पार्टी धार्मिक पहचान के मुद्दे से आगे नहीं बढ़ पाई, जिससे उसके विस्तार में बाधा आई।
  • युवाओं की भागीदारी की कमी: युवा और महिला मतदाता नए विकल्प तलाश रहे हैं, जबकि बुजुर्ग पारंपरिक पार्टियों पर भरोसा बनाए हुए हैं।

आगे का रास्ता: धर्मनिरपेक्षता के बोझ से आगे बढ़कर

दिल्ली के नतीजे एक आत्ममंथन की माँग करते हैं। समुदाय के लिए कुछ महत्वपूर्ण कदम हो सकते हैं:

  • राजनीतिक दलों से जवाबदेही की माँग: मुस्लिम मतदाताओं को धर्मनिरपेक्ष पार्टियों से ठोस नीतियाँ, जैसे आरक्षण, भेदभाव विरोधी कानून और पुलिस सुधार, की मांग करनी चाहिए।
  • स्वतंत्र शक्ति निर्माण: शिक्षा, आर्थिक सशक्तिकरण और जमीनी नेतृत्व को बढ़ावा देकर किसी भी पार्टी पर निर्भरता कम करनी होगी।
  • डर की बजाय रणनीतिक मतदान: केवल हिंदुत्व-विरोधी राजनीति तक सीमित रहने के बजाय, उन उम्मीदवारों का समर्थन किया जाए जो मुस्लिम समुदाय के हितों की रक्षा करें।
  • एकता को प्राथमिकता देना: मज़हबी और राजनीतिक विभाजनों को खत्म करके एक मजबूत सामूहिक आवाज़ तैयार करना।

निष्कर्ष: एक चेतावनी संकेत

2025 के दिल्ली चुनाव भारतीय मुस्लिम राजनीति के व्यापक संकट का प्रतीक हैं। हालांकि उनका वोट कुछ सीटों को प्रभावित कर सकता है, लेकिन वे राष्ट्रीय राजनीति के मुख्य विमर्श से बाहर होते जा रहे हैं। अब समय आ गया है कि मुस्लिम समुदाय अपने राजनीतिक दृष्टिकोण को फिर से परिभाषित करे—सम्मान, प्रतिनिधित्व और शक्ति को प्राथमिकता देने के लिए। चुनावी धूल बैठने के बाद एक संदेश स्पष्ट है—अंधी निष्ठा अब कोई समाधान नहीं। एक नया रणनीतिक रोडमैप बनाने का वक्त आ चुका है।

लेखक: Theainak.com संपादकीय टीम

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