बाढ़, बेरोज़गारी , महामारी और बिहार ; गलती हमारी ?
सरकार और सरकारी तंत्र को कोसते कोसते कभी हम अपने गांव, मुहल्ले, ब्लॉक से लेकर सहर तक कभी भी अपने लोकल मुद्दों से पॉलिटिक्स को मजबूर किया हमने ? इस सवाल के जवाब में ही यूरोप और अमेरिका की तरह की लोकल डेवलपमेंट का मंत्र छिपा है।
चलिए मुजफ्फरपुर जिले का ही उदाहरण देते है।
लीची के लिए मशहूर सिटी में कितने लिची से जुड़े फैक्ट्री है , जैसे की ज्यूस , चॉकलेट, इत्यादि..?
हर साल बाढ़ के टाइम एक कॉम्पटीशन टाइप हर अखबार में फोटो देखते है हम पर क्या अर्बन और रूरल डेवलपमेंट प्रोग्राम में एक बाढ़ से दूसरे बाढ़ के बीच लोकल लेवल पे क्या काम हुआ देखते है क्या हम ?
जो भी पुल या बांध का काम होता लोकल लेवल पे प्लैनिंग वाले महकमे के ऊपर केस तो दूर बस फोटो ऑपरेशन बना देते।
नालो की समस्या से सिटी का नरक जैसा बन जाना सालो से चला आ रहा , आज तक नालों के पानी का सहर से बाहर ट्रीटमेंट प्लांट तो दूर एक दूसरे से इंटर कनेक्टिविटी भी नहीं हो पाया। मतलब हर साल गलत जगह पैसे बर्बाद हो रहे। हार्ट की बीमारी में बुखार की दवा हर साल खाने जैसी बात हो गई।
कोरॉना काल में लॉकडाउन में सदर अस्पताल को प्राइवेट अस्पताल की तुलना में वार लेवल पे डिवेलप करना था सवाल जवाब इन सब पे होने की बजाए हम बस कोरोंना की रिकवरी रेट पे थीसिस कर रहे।
लोकल लेवल पे एक्जीक्यूशन, प्लैनिंग ही विकास का मूल मंत्र है।मोतीपुर, सरैया, पारू, इत्यादि ब्लॉक के स्वास्थ केंद्र पे कभी जाइए फिर आपको असलियत पता चलेगी।
विकाश का मतलब रोड और दफ्तर का नया हो जाना नहीं है। दूर दराज इलाको में सरकारी तंत्र से लोगो में उत्साह और खुशी हो ये पैमाना होना चाहिए।
अगर रोड सिलान्यास से आप नेता चुनते है तो आज़ादी के १०० साल बाद भी रोड और पानी पे ही ये वोट मांगते रहेंगे। समाज ऐसा करे कि नेतागीरी की नरेटिव ही बदले ।